इंसानियत की अमानत पर उठा विवाद
(आबिद मो खान)
भोपाल। भोपाल की फिज़ाओं में जब भी बेगम शाहजहां का नाम गूंजता है, तो लोगों के जेहन में इंसानियत, रहमत और यतीमों की परवरिश का सुनहरा दौर ताजा हो उठता है। उस जमाने में जब समाज में अनाथ बच्चों की परवरिश का कोई ठोस इंतज़ाम नहीं था, बेगम ने दूरदृष्टि के साथ सोचा—
"जब शहर की आबादी बढ़ेगी, तो यतीम भी बढ़ेंगे। उनके सिर पर छत और खर्च का इंतज़ाम कहां से होगा?"
इस सवाल का जवाब उन्होंने खुद ही तलाशा और सन् 1887 में इदारा यतीम खाना शाहजानी वाक्के मुत्सिल मदरसा जहांगीरया की नींव रखी।
मजहब से ऊपर उठकर इंसानियत
बेगम शाहजहां ने इंसानियत का ऐसा पैगाम दिया, जो मजहब की दीवारों से ऊपर था।
मुस्लिम बच्चों के लिए यतीमखाना और मदरसा जहांगीरया कायम किया।
मुस्लिम बच्चियों की खास परवरिश और तालीम के लिए मदरसा बिल्किसिया शुरू किया।
और सबसे बड़ी मिसाल — गैर-मुस्लिम बच्चों को भी न भूला। भोपाल की हमीदिया रोड पर हिंदू अनाथालय की बुनियाद रखी, जिसका खर्च दुकानों के किराए से चलता था।
यह सब उस दौर में हुआ जब समाज में इतने बड़े फैसले लेना आसान नहीं था।
समय बदला, लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। इंसानियत की इस विरासत पर सवाल उठ रहे हैं। वक्फ बोर्ड का दावा है कि संस्था पर ₹27 करोड़ की वसूली बनती है।
सुलगते सवाल
21 साल से इज्तिमा बाजार का संचालन, जिसमें करीब 200 दुकानों से ₹25.85 करोड़ की कथित आमदनी हुई, लेकिन बोर्ड को हिसाब नहीं दिया गया।
जीवनरेखा अस्पताल की इमारत वक्फ की बताकर, मात्र ₹1 लाख 8 हजार रुपए में 9 साल के लिए किराए पर दे दी गई।
अखबारों की सुर्खियां चौंकाने वाली थीं—
"इज्तिमा बाजार और अस्पताल किराए पर देने में धांधली, ₹27 करोड़ की वसूली का नोटिस।"
-लेकिन हकीकत कुछ और कहती है…
अगर सचमुच संस्था की आमदनी करोड़ों में होती, तो आज तस्वीर कुछ और होती—
यतीम बच्चों के लिए आधुनिक स्कूल और कॉलेज खड़े होते,
खेल के मैदान और विश्वस्तरीय अस्पताल होते,
गरीब और बेसहारा बच्चियों की तालीम के नए रास्ते निकल चुके होते।
सवाल वही है – जिसका कोई नहीं, उसका कौन
शाहजहां बेगम की विरासत का असली मकसद था इंसानियत की सेवा, मजहब की सरहदों से परे। लेकिन आज इन इदारों पर लगे आरोप और नोटिस कई बड़े सवाल खड़े करते हैं—
क्या यह वाकई करोड़ों की धांधली है या सिर्फ दबाव बनाने की कोशिश?
अगर इतनी आमदनी हुई थी, तो उसका असर यतीम बच्चों की जिंदगी में क्यों नहीं दिखता?
क्या इंसानियत की यह अमानत सियासी और कानूनी झगड़ों की भेंट चढ़ जाएगी?
इतिहास गवाह है कि शाहजहां बेगम ने भोपाल की सरजमीं को इंसानियत की खुशबू से महकाया था। अब देखना होगा कि आने वाला वक्त इस विरासत को बचाएगा या फिर यह इंसानियत की तामीर, कागजी बहसों में कहीं गुम हो जाएगी।